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माताजी की कुछ '' प्रार्थनाओं" और 

 

'' वार्तालाप '' थे की व्याख्याएं

 

माताजी की कुछ रायों की व्याख्या इत्यादि

 

१. '' प्रार्थनाएँ और ध्यान ''

 

' 'दिव्य प्रभु '' को संबोधित माताजी की कुछ प्रार्थनाओं में मैंने ये शब्द देखे हैं : ' 'हमारी भगवती माता के साथ। '' भला माताजी और दिव्य प्रभु  की भी एक ' भगवती माता  कैसे हो सकती है? यह तो ऐसा हुआ मानों माताजी ' भगवती माता  न हों और कोई दूसर?r माताजी भी हों तथा ' दिव्य प्रभु परात्पर न हों और उनकी भी एक ' भगवती माता '  हो? अथवा क्या यह बात है कि ये' सब प्रार्थनाएं किसी निर्बोयक्तिक सत्ता को संबोधित की गयी है?

 

अधिकांश में ये प्रार्थनाएं पार्थिव चेतना के साथ एक होकर लिखी गयी हैं । यहां निम्नतर प्रकृति में विद्यमान मां उच्चतर प्रकृति में विद्यमान मां को संबोधित कर रही हैं, रूपांतर के लिये पार्थिव चेतना की साधना करती हुई स्वयं माताजी ही ऊपर में विद्यमान स्वयं अपनी ही सत्ता से प्रार्थना कर रही हैं जिससे रूपांतर की शक्तियां आती हैं । यह तबतक जारी रहता है जबतक कि पार्थिव चेतना और उच्चतर चेतना का तादात्म्य सिद्ध नहीं हो जाता । ' हमारी ' शब्द, मेरी समझ में साधारण रूप में प्रयुक्त हुआ है और वह पार्थिव चेतना में उत्पन्न सभी जीवों को सूचित करता है-उसका अर्थ ' दिव्य प्रभु '

 

माताजी की '' प्रार्थनाएं '' जो मूलत: फ्रेंच में लिखी गयी थीं, पीछे  प्रीऐर ए मेदितसियों '', '' प्रार्थनाएं और ध्यान ' ') नाम से प्रकाशित हुई । 

 

(मातृवाणी-वार्तालाप) सन् १९२९ में शिष्यों की एक छोटी-सी मणड़लि के अंग्रेजी में माताजी का अभिलेख ह ! 

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 और स्वयं ' मेरी माताजी ' नहीं है । वहां सर्वदा भगवान् को ही दिव्य प्रभु और स्वामिन्  के रूप में संबोधित किया गया है । एक माताजी हैं जो साधना कर रही हैं और दूसरी भगवती माता हैं, दोनों एक होने पर भी विभिन्न स्थितियां हैं, और दोनों सर्वेश्वर या दिव्य प्रभु की ओर मुड़ती हैं । इस प्रकार की भगवान् की भगवान् से की हुई प्रार्थना तुम्हें रामायण और महाभारत में भी मिलेगी ।

 

२१ - ८ - १९३६

 

जिस ' अनुभव का आपने (माताजी ने) वर्णन किया है वह सच्चे अथ में वैदिक है, यद्यपि यह ऐसा नहीं जिसे आधुनिक योग-पद्धतियां जो अपने को यौगिक कहती हैं सहज ही मान्यता दें । यह वेद और पुराण की '' पृथ्वी '' का भागवत ' तत्त्व ' के साथ मिलन है, उस पृथ्वी का जो हमारी पृथ्वी से ऊपर स्थित कही जाती है, अर्थात्? उस भौतिक सत्ता एवं चेतना का जिसकी प्रतिमाएं मात्र हैं जगत् और देह । परंतु आधुनिक योग भगवान् के साथ भौतिक मिलन की संभावना कदाचित् स्वीकार नहीं करते ।

 

३१-१२-१९१५

 

*

 

माताजी की सन् १११ ह की कुछ ऐसी प्रार्थनाएं हैं जिनमें के रूपांतर और अभिव्यक्ति की बात करती हैं क्योंकि के उस समय यहां नहिं थी तो क्या इससे यह मतलब नहीं निकलता कि यहां आने से बहुत पहले ही उनके अंदर ये विचार थे ?

 

माताजी अपनी युवावस्था से, यहांतक कि बाल्यावस्था से लेकर बराबर आध्यात्मिक रूप से सचेतन थीं और भारत आने से दीर्घकाल पूर्व ही वे साधना करके यह ज्ञान विकसित कर चुकी थीं ।

 

२३-१२-११३३

 

*

 

यह माताजी के २६-११-१९३५ के एक पत्र का, जिसमें उनके अनुभव का विवरण था, श्रीअरविन्द का दिया हुआ उत्तर है । माताजी के पत्र के लिये देखें मातृवाणी (१९३१) पृ. २७१ ।

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जैसा कि माताजी ने अपनी १ S जून १११ ह की 'प्रार्थना ' में कहा है? इससे अधिक महत्वपूर्ण कुछ नहीं कि ''तेरा ज्योतिर् भव प्रकट होना चाहता है '' अपने लिये पूर्णता प्राप्ति के या यंत्र होने के समस्त विचार चेतना की विशाल वैश्व गति के दृष्टिकोण से विचारे जाने पर निःसार और नीरस प्रतीत होते हैं

 

यह ठीक है । अपने लिये पूर्णता सच्चा आदर्श नहीं । साधना और यंत्र- भाव  '' प्रकट्य '' के साधन के रूप में ही उपयोगी हैं ।

 

३० - ४ - १९३६ 

 

*

 

१७ मई १११ ह की प्रार्थना ' में माताजी कहती है?'' ये के के दो वाक्य न?ए मैंने कल एक प्रकार की अनिवार्य आवश्यकतावश लिखे थे पहला मानों प्रार्थना की शक्ति केवल तभी परिपूर्ण होगी जब वह कागज पर लिपिबद्ध कर ली जायेगी ''...

 

    क्या यह सच हे कि जब प्रार्थनाएंको वाणी या लेखनी के द्वारा व्यक्त नहिं किया जाता तो वह पर्याप्त शक्तिशाली नहीं हातो ? और कि उसे पूर्ण रूप से शक्तिशाली बनाने के लिये इस प्रकार व्यक्त करना आवश्यक हे?

 

वह कथन सामान्य नियम के रूप में अभिप्रेत नहीं था -वह तो केवल उस विशेष प्रार्थनाएं  और उस अनुभूति के संबंध में महसूस की गयी एक आवश्यकता थी । यह सब तो निर्भर करता है व्यक्ति और उसकी अवस्था पर, किसी क्षण- विशेष की अथवा चेतना की तत्तद् भूमिका की या उसके तत्तद् पक्ष की आवश्यकता पर । आध्यात्मिक अनुभव में ये चीजों सदा ही नमनीय. और परिवर्तनशील  होती हैं । किन्हीं अवस्थाओं में या किसी एक पक्ष में या किसी क्षण प्रार्थना की कार्यसाधक शक्ति को या अनुभव की स्थायिता को प्रकट करने के लिये प्रार्थना की वाचिक या लिखित अभिव्यक्ति की आवश्यकता हो सकती है; किसी अन्य अवस्था या पक्ष में या किसी और क्षण इससे ठीक उलटी बात हो सकती है, या यूं कहें कि तब अभिव्यक्ति शक्ति को बिखेर देगी या स्थिरता को भंग कर देगी ।

 

२१ - ६- १९३६

*

३७३


माताजी की १ S दिसम्बर १११ ह की प्रार्थना यों शुरू होती है : '' सब कुछ कने के लिये हमें हर क्षण सीखना होगा सब कुछ खोना... ''

 

ईश उपनिषद भी कहती है : ' 'तेन त्यलेन मुज्जीथा: '' (उसे त्यागकर उसका भोग करो) क्या ये दोनों कथन एक ही सत्य की ओर संकेत नहीं करते?

 

हां, निश्चय ही । यह तत्त्वतः एक ही सत्य है जिसे भिन्न-भिन्न ढंग से प्रस्तुत किया गया है । इसे निषेधात्मक रूप में भी रखा जा सकता है-''यदि हम वस्तुओं के उसी रूप से चिपके रहें जो अज्ञानावस्था में उनका अपूर्ण रूप है तो भागवत प्रकाश, सामंजस्य और आनंद में उनका जो सत्य और सर्वांगपूर्ण स्वरूप है उसमें हम उन्हें नहीं प्राप्त कर सकते । ''

 

अपनी एक प्रार्थना में माताजी कहती हैं : ''कार्य में जो आनंद अतिक्रान्त कर जात है!   उससे कार्य से का महत्तर आनंद अतिक्रान्त कर जाता है? '' इससे यह अर्थ निकलता हे कि कार्य से निवृत्ति कार्य की अपेक्षा अधिक वरणीय है!

 

क्या तुम समझते हो कि माताजी का मन तुम लोगों के मन की तरह कठोर है और वे सब समय के लिये तथा सभी लोगों और सभी अवस्थाओं के लिये बंधा-बंधाया नियम प्रस्थापित कर रही थी? वह तो एक विशेष अवस्था से संबंध रखता है जिसमें चेतना कभी तो कार्यरत होती है और जब कार्यरत नहीं होती तो अपने अंदर पीछे की ओर हटी होती है । उसके बाद एक ऐसी अवस्था आती है जब सच्चिदानंद-स्थिति कार्य में भी बनी रहती है । उससे आगे की भी एक अवस्था है जिसमें ये दोनों मानों एकीभूत होती हैं, पर वह है अतिमानसिक भूमिका । दो भूमिकाएं हैं : नीरव (शांत) ब्रह्म और सक्रिय ब्रह्म और वे बारी- बारी से आ सकती हैं (पहेली अवस्था), एक साथ रह सकती हैं (दूसरी अवस्था), घुल-मिलकर एक हो जा सकती हैं (तीसरी अवस्था) । यदि तुम पहली अवस्था तक भी पहुंच जाओ तो तुम माताजी की उक्ति का प्रयोग करने की सोच सकते हो, पर अभी से उसका गलत प्रयोग क्यों करते हो?

 

    क्या कर्म में सच्चिदानन्द का उच्चतम साक्षात्कार प्राप्त करना संभव है?

३७४ 


अवश्य ही वह कर्म में प्राप्त हो सकता है । हे भगवान्! यदि वह प्राप्त न हो सके तो पूर्ण योग का अस्तित्व ही कैसे रह सकता है?

 

*

फ माताजी अपनी ''प्रार्थनाओं '' की पुस्तक में कहती हैं कि अनुभव भगवान् की इच्छा व संकल्प से उपलब्ध होता है । तो क्या मुझे यह मानना चाहिये कि किसी प्रस्तुत दृष्टांत में अनुभव की न्यूनता य बहुलता के पीछे भगवान् की इच्छा होती है?

 

जबतक तुम सभी चीजों को भगवान् से आती न अनुभव करो तबतक ऐसा कहने का कोई मूल्य नहीं । जिस प्रकार भीषण कष्टों और कठिनाइयों के बीच भी माताजी ने अनुभव किया था कि ये भगवान् से आये हैं और उन्हें उनके कार्य के लिये तैयार कर रहे हैं उस प्रकार का अनुभव जिसे प्राप्त हुआ हो वही ऐसी मनोवृत्ति का आध्यात्मिक उपयोग कर सकता है ।. दूसरे तो इससे अशुद्ध परिणाम निकालने में प्रवृत्त हो सकते हैं ।

 

१०- ५ - ११३४ 

 

*

 

माताजी अपनी ह अगस्त १९१४ह की प्रार्थना में कहती हैं : ' 'शक्तियों के संघर्ष से प्रेरित होकर 'मनुष्य महान् आत्म- बलिदान कर रहे हैं । ''... प्रत्यक्ष ही उनका संकेत महायुद्ध की ओर ने;. परंतु क्या उस युद्ध के परिणामस्वरूप किसी ''शुद्ध, ज्योति '' ने लोगों के हृदयों को पूरित किया है या '' भागवत शक्ति '' पृथ्वी पर कैली है अथवा क्या उस अस्तव्यस्तता में से कोई लाभदायक वस्तु प्रकट हुई है जैसा ?इक उन्होंने उल्लेख किया है? क्योंकि राष्ट्र एक बार फिर युद्ध की तैयारी कर रहे हैं और आपको में सतत संघर्ष की अवस्था में हैं अतः मनुष्यों की आंतरिक अवस्था में किसी परिवर्तन का कोई चिह्न नहीं दिखाई देता संसार में सर्वत्र लोग यहांतक कि भारतीय भी उनमें सम्मिलित है? एक और युद्ध चाहते प्रतीत होते हैं और शायद ही कोई 'शांति : 'प्रकाश ' ? 'प्रेम ' की चाहना करता' दिखता है

 

परिवर्तन अधिक ' के लिये ही आ है-मानव जगत में प्राणिक लोक उतर

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आया है । दूसरी ओर, यह भी है कि बुरी शक्तियों से '' अधिकृत '' राष्ट्रों को छोड़कर और सभी में शान्ति के लिये कही अधिक चाह है और है यह भावना कि ऐसी चीजों नहीं होनी चाहियें । भारत को तो युद्ध का कोई वास्तविक स्पर्श मिला ही नहीं । तथापि माताजी जो कुछ सोच रही थीं वह था आध्यात्मिक सत्य की ओर उन्मीलन । कम-से-कम उस उन्मीलन ने प्रकट होने का यत्न किया है । पुरानी जडवादीय सभ्यता से व्यापक असन; म देखने में आ रहा है, और साथ ही किसी अधिक गहरे प्रकाश एवं सत्य -है लिये खोज भी -दुर्भाग्य की बात इतनी ही है कि पुराने धर्म इससे लाभ उठा रहे हैं और केवल बहुत थोडी संख्या में ही लोग नये ' प्रकाश ' की सचेतन रूप से खोज कर रहे हैं ।

 

-६-१९३६

 

*

 

आपने कहा था कि महायुद्ध की बाद '' मानव जगत् में प्राणणलोक का  अवतरण '' हुआ है परंतु क्या प्राणलोक पर जडुतत्व में- मनुष्यों के भी प्रकट होने से पहले अवतरित नहीं हुआ था? किस अन्य प्र?णलोक का मानव जगत् में उतरना अभी भी शेष था? और यह केसी बात है कि उसने ठीक अभी अवतरित होने का निर्णय किया ताकि वह मानव लोक में उच्चतर 'प्रकाश ' को उसे  से रोक सके?

 

ऊर्ध्व से जिस ' अवतरण ' की तैयारो हो रही है उसके कारण जब प्राणिक लोक पर दबाव पड़ता है तो साधारणतया वह लोक सहसा ही अपना कुछ अंश मानव लोक में अवक्षिप्त करता है । प्राणिक लोक बहुत ही विस्तृत है और अपने विस्तार में मानव लोक से बहुत ही अधिक बडा है । पर सामान्यतया वह प्रभाव के द्वारा आधिपत्य जमाता है, अवतरण के द्वारा नहीं । निः सन्देह, प्राणिक लोक के इस प्रदेश की चेष्टा मानवजाति को सदा अपने प्रभुत्व के नीचे रखने और उच्चतर ' ज्योति ' को रोकने के लिये होती है ।

 

९-६-१९३६

 

*

 

आप कहते हैं कि प्राणिक लोक के अवतरण के कारण जो परिवर्तन आया है वह अधिक के लिये ही हुआ है? यदि ऐसा है तो क्या वह '..-चेतना में अतिमानसिक अवतरण को असंभव नहीं बना देगा अथवा

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उसके आगमन के '' यहीं और अभी '' होने के स्थान पर उसे किसी दूर भविष्य पर नहीं टाल देगा? और क्योंकि असुर- अधिकृत राष्ट्र समस्त संभावनीय भौतिक शक्ति से सुसम्पज्ञ हैं शांति के किसी भी आन्दोलन के सफल होने की आशा बहुत ही कम दिखाई देती है

 

प्राणिक अवतरण अतिमानस के अवतरण को रोक नहीं सकता - असुर- अधिकृत राष्ट्रों के लिये अपनी भौतिक शक्ति के द्वारा ऐसा कर सकना तो और भी कम संभव है, क्योंकि अतिमानसिक अवतरण प्रधानत: एक आध्यात्मिक तथ्य है जिसके आवश्यक बाह्य परिणाम होकर ही रहेंगे । पहले के प्राणिक अवतरणों ने किया यह है कि जो ' प्रकाश ' उतरा था उसे उन्होंने मिथ्या रूप दे डाला है, जैसा कि हम ईसाइयत के इतिहास में देखते हैं । वहां उसने इसकी शिक्षा को अपने अधिकार में कर लिया और उसे विकृत कर किसी भी प्रकार की व्यापक चरितार्थता से वंचित कर दिया 1 परंतु अतिमानस, अपनी परिभाषा के अनुसार, एक ऐसा ' प्रकाश ' है जो यदि अपने निज अधिकार से और अपने साक्षात् स्वरूप में आये तो उसे विकृत नहीं किया जा सकता । जब वह अपने को पीछे की ओर रोक रखता है और चेतना की निम्नतर ' शक्तियों ' को एक क्षीण एवं विचलित हो चुके ' सत्य ' का प्रयोग करने देता है तभी उसके ज्ञान को प्राणिक  ' शक्तियां ' अपने कब्जे में करके अपने प्रयोजन की पूर्ति में लगा सकती हैं ।

 

१२-६-१९३६

 

*

 

अपनी १६ अगस्त १११४ की 'प्रार्थना' में माताजी ''उन महान आसुरिक सत्ताओं की ओर'' सकेत करती हैं ''जिनहोने 'तेरे' सेवक बनने का दृढ़ निश्चय किया है। उनमें से प्रत्येक... ''

 

यह कैसे हुआ कि ' ने भगवान् के सेवक बनने का निर्णय किया? क्या उसका उद्देश्य भगवान् से अपना मतलब निकालना था या फिर वह एक '' चाल'' थी !

 

यह प्रार्थना उन असुरों के संबंध में लिखी गयी थी जिन्होंने मानव शरीरों में जन्म ग्रहण किया था, -इस प्रकार के जन्म से वे सामान्यतया, जहांतक संभव हो । बचते हैं, क्योंकि वे जन्म लिये बिना ही मानव जीवों को अधिकृत कर लेना अधिक पसंद करते हैं, -'?-रूप में जन्म उन्होंने इस दावे के साथ

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लिया था कि वे भगवान् की सेवा और उनका कार्य करते हुए अपना सुधार व उद्धार करना चाहते हैं । किन्तु इसमें उन्हें कोई अधिक सफलता नहीं मिली ।

 

१५ - ६- १९३६

 

*

 

क्या विश्व में सचमुच आंतरिक प्रगति हुई है- ' जैसा कि माताजी कहती हैं? इने-गिने व्यक्तियों को छोड़कर मनुष्यजाति में शायद ही प्रगति हुई हो! आंतरिक और बाह्य रूप में विश्व कोई भी वास्तविक उत्रति किये बिना सदा उसी एक चक्र में धूमता प्रतीत होता है

 

फ्रेंच में  (यूनिव्हैर ) का अर्थ साधारणतया सम्पूर्ण  ब्रह्मण्ड  नहीं बल्कि '' संसार '' -भूतल होता है । पृथ्वी-चेतना में प्रगति अवश्य हुई है, नहीं तो किसी प्रकार का विकास नहीं हो सकता था । मनुष्यजाति का विकास चक्राकार या कुण्डलाकार गति के द्वारा साधित हो सकता है, परंतु सब समय अधिकाधिक पूर्ण संभावनाओं का उद्घाटन होता रहता है जबतक कि उच्चतर जाति के विकास की संभावना संपुष्ट नहीं हो जाती ।

 

१ - १ - ११३६

 

(एवेइल्लेज़-वोउस ) नामक पुस्तक में ( जो अंग्रेजी से अपूदित की गयी है) कुछ विचार हैं- जैसे ' आविर्भाव : विरोधी सत्ताओं आदि के सर्बध में- जो हमारे विचारों से मिलते- जुलते है उस पुस्तक में यह वाक्य भी है (शांति पृथ्वी पर राज्य करेगी); यह भी माताजी की ''प्रार्थनाओं ? '' की पुस्तक में आता है क्या ग्रंथकार ने यह वाक्य माताजी की ( अप्रकाशित) पुस्तक ' 'प्रार्थनाएं '' से नकल नहीं किया है?

 

ऐसा होना आवश्यक नहीं, क्योंकि यह वाक्य ऐसे किसी भी आदमी के मन में सहज ही आ सकता है जिसने बाइबल पढ़ रखी है और अंग्रेज बाइबल की भाषा का अनुकरण बहुत ही अधिक करते हैं । विरोधी सत्ताओं का विचार भी नया नहीं, सच पूछो तो यह उतना पुराना है जितना वेद । ' आविर्भाव ' की आशापूर्ण प्रतीक्षा का विचार भी काफी व्यापक रूप से फैला -आ है, क्योंकि

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प्राचीन भविष्यवाणियों के अनुसार, जब 'आविर्भाव' का समय आयेगा तो वह होकर ही रहेगा ।

 

१६-१-११३५

 

२. ''वार्तालाप''

 

माताजी पूछती हैं ''तुम योग किसलिये करना चाहते हो? शक्ति प्राप्त करने के लिये?''' क्या यहां ''शक्ति'' का अर्थ अपना अनुभव दूसरों के अंदर संचारित करने की शक्ति है? इसका ठीक-ठीक अर्थ क्या है?

 

शक्ति एक सामान्य पारिभाषिक शब्द है-यह संचारित करने की शक्ति तक ही सीमित नहीं । शक्ति का सर्वाधिक सामान्य रूप है पदाथों, व्यक्तियों, घटनाओं एवं बलों पर नियंत्रण ।

 

१-१-१९३७

 

*

 

माताजी कहती हैं ''आवश्यक वरतु  है एकाग्रता-भगवान् पर एकाग्रता जो उनकी 'इच्छा' और उदशय  के प्रति समग्र और चरम-परम आत्म-निवेदन के विचार से की गयी हो" ''' क्या उनकी  'इच्छा' उनके 'उद्देश्य'  से भिज्ञ है?

 

दोनों शब्दों का अर्थ एक ही नहीं है । (पर्पज) का अर्थ है प्रयोजन, वह दृष्टिगत लक्ष्य वा उद्देश्य जिसके लिये भगवान् कार्य कर रहे हैं । भा।। (विl इच्छाशक्ति) उससे अधिक व्यापक परिभाषा है ।

 

 

१-१-११३७ 

 

*

    ''हृदय में एकाग्रता करो?''' एकाग्रता क्या चीज है? ध्यान क्या होता है?

 

एकाग्रता का अथ है चेतना को एक ही केन्द्र के भीतर एकत्र करना और एक

 

' मातृवाणी-वार्तालाप (१९६९), पृ. १०

' वही ' ११ ' वही त. ११

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ही विषय (पदार्थ) या एक ही विचार या एक ही अवस्था पर स्थिर करना । ध्यान एक व्यापक परिभाषा है जो अपने अंदर अनेक प्रकार की आंतरिक क्रियाओं को समाविष्ट कर सकती है ।

 

१ - १ - ११३७ 

 

*

 

''एक अग्नि वहां जल रही है... वह है तुम्हारे अंदर स्थित दिव्य सत्ता- तुम्हारी सच्ची सत्ता उसकी वाणी सुनो उसके आदेशों का अनुसरण करो ''

 

   मैंने अपने अंदर यह अग्नि कभी नहीं देखी तो भी मुझे वेदन होता है कि मैं अपनी अन्तःस्थित दिव्य सत्ता को जानता हूं मुझे वेदन होता है कि मैं उसकी वाणी सुनता हूं और फिर उसके आदेशों के अनुसार चलने के लिये मैं भरसक यत्न करता हूं क्या मुझे अपने वेदन पर संदेह करना चाहिये?

 

नहीं, तुम्हें जो वेदन होता है वह बहुत संभवत: चैत्य पुरुष से मन के द्वारा प्राप्त इंगित है । चैत्य अग्नि से प्रत्यक्षत: सचेतन होने के लिये मनुष्य में सूक्ष्म अन्तदृष्टि और सूक्ष्म इन्द्रिय सक्रिय होनी चाहियें या फिर होनी चाहिये चेतना में प्रकट शक्ति के रूप में काय करते हुए चैत्य की सीधी क्रिया ।

 

२ - १- १९३७ 

 

*

 

"हम सभी पूर्व जीवनों में मिल चुके हैं । ''

    ''हम '' से यहां ठीक-ठीक क्या अभिप्रेत है? क्या आप दोनों को मेरी क्षति है? भूतकाल में मैंने इस कार्य के लिये आपकी बहुधा सेवा की थी?

 

यह एक सामान्य सिद्धांत है जो घोषित किया गया है । यह उन सभी को अपने अंतर्गत कर लेता है जिन्हें कार्य के लिये पुकारा गया है । उन दिनों माताजी, जिनके साथ वे यह वार्तालाप कर रही थी उनका भूतकाल (या उसका एक भाग) देखा करती थीं और इसीलिये उन्होंने ऐसा कहा था । इस समय हम

 

वही, पृ. ११  वही, पृ. १४

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भौतिक चेतना में चल रहे निर्णायक कार्य में इतने अधिक व्यस्त हैं कि इन चीजों पर ध्यान नहीं दे सकते 1 अपि च, हम देखते हैं कि इसने साधकों में एक प्रकार की प्राणिक रूमानियत को प्रोत्साहित किया, जिसके वश उन्होंने साधना के कठिन कार्य की अपेक्षा इन चीजों को अधिक महत्त्व प्रदान किया । इसलिये हमने विगत जीवनों और व्यक्तित्वों की बात कहना बंद कर दिया है ।

 

२ - १ - ११३७  

 

*

 

'' योग के दो मार्ग हैं एक तपस्या (अनुशासन) का और दूसरा समर्पण का ''

 

   एक बार आपने मेरे अंतर्दर्शन की व्याख्या करते हुए कहा था कि अग्नि पवित्रीकरण और तपस्या की अग्नि ' सत्य ' के ' सूर्य ' को जन्म दे रही है मैं किस पक्ष का अनुसरण कर रहा हूं? समर्पण के मार्ग में तपस्या का क्या स्थान है? क्या कोई समर्पण के मार्ग में बिलकुल तपस्या के बिना काम चला सकता है?

 

एक तपस्या वह है जो समर्पण के परिणामस्वरूप आप-से- आप होती है और एक तपस्या (अनुशासन) वह है जिसका अनुसरण व्यक्ति किसी दूसरे की सहायता के बिना अपने ही प्रयत्न से करता है-इनमें से पिछली ही '' योग के दो मागों '' में अभिप्रेत है । किंतु तपस्या की आग के रूप में ' अग्नि ' दोनों ही अवस्थाओं में जल सकती है ।

 

४ - १ - ११३७ 

 

*

''काम- वासना जैसे आवेगों का बल साधारणतया इस तथ्य में निहित होता है कि लोग उनपर बहुत ही अधिक ध्यान देते हैं ''

 

   बे अन्य आवेग कौन- से हैं जिनकी ओर इस वाक्य में संकेत किया गया है?

 

यह प्रबल प्राणिक आवेगों की ओर संकेत करता है ।

 

४ - १ - ११३७

 

*

 

वही, पु.१६  वही,पु.१८

३८१ 


''सारा संसार इस विष से भरा है? हर सास के साथ तुम इसे अपने अंदर ले रहे हो /

 

   कब तक साधक छूत लग जाने के इस भय के वश में रहता है? ऐसा प्रतीत होता है कि मुझे अब ऐसी छूत नहीं लगेगी? क्या मेरी प्रतीति विश्वसनीय है?

 

मुझे मालूम नहीं कि वह ऐसी है या नहीं । इसके पूर्व कि कोई इतना सुरक्षित हो सके उसे मार्ग पर बहुत दूर तक आगे बढ़ना होता है ।

 

४-१-११३७ 

 

*

 

''परंतु जिनके पास आवश्यक आधार एवं पाया है उन्हें हम इसके विपरीत यह कहते हैं कि 'अभीप्सा करो और खींचो'/"

 

   क्या अभीप्सा करने और खींचने की यह क्षमता पहले से की जा चुकी महान् प्रगति की सूचक है?

 

नहीं। तुलनात्मक दृष्टि से यह एक आरंभिक अवस्था है ।

 

५-१-११३७ 

 

*

 

''आध्यात्मिक अनुभव का अर्थ है अपने अंदर (या अपने बाहर जो उस क्षेत्र में एक ही बात है) भगवान् के साथ संपर्क? ''

    अपने ''बाहर'' स्थित भगवान् का क्या अर्थ है? क्या इसका अर्थ है विश्वगत भगवान् या परात्पर भगवान् या दोनों?

 

इसका अर्थ है बाहर पदार्थ, सत्ताओं, घटनाओं आदि, आदि में प्रत्यक्ष किये गये भगवान् ।

 

९-१-११३७  

 

*

वही, पृ. २० वही, पृ. १८ वही, पृ. ३८

३८२


क्या ' जॉन ऑफ आर्क ' की प्रकृति दो प्रधान देवदूतों : 'अधिमानस'  की दो सत्ताओं के साथ उनके संबंध के कारण कुछ भी रूपांतरित हुई थी?

 

मैं नहीं देख पाता कि रूपांतर का प्रश्न यहां कैसे घुस आया । ' जाँन ऑफ आर्क ' योग का अभ्यास या रूपांतर की अभीप्सा नहीं कर रही थीं ।

 

१ - १ - १९३७ 

 

*

 

  अधिक गहरे स्रोत से आनेवाले स्वप्न में और एक दिव्यदर्शन ' में व्यक्ति कैसे भेद कर सकता है?

 

इसके लिये कोई कसौटी नहीं है, परंतु यदि कोई निद्रा में नहीं बल्कि उस आंतरिक अवस्था में हो, जिसमें अधिकतर दिव्यदर्शन होते हैं, तो उस समय उसपर जो संस्कार पड़ता है उसके स्वरूप के द्वारा वह सहज ही भेद कर सकता है । स्वप्न में प्राप्त दिव्यदर्शन और जीवन्त स्वप्न- अनुभव में भेद करना अधिक कठिन हैं, परंतु व्यक्ति भेद अनुभव करने लगता है ।

 

. १ - १ - १९३७ 

 

  कभी तो मनुष्य स्वप्नों को याद रखता है और कभी नहीं' ऐसा क्यों होता है?

 

यह जागने के समय चेतना की दो अवस्थाओं में संबंध पर निर्भर करता है । सामान्यतया चेतना का एक ऐसा पलटाव होता है जिसमें स्वम्नावस्था कम या अधिक ऊबड-खाबड़ ढंग से विलुप्त हो जाती है, और स्वप्न की घटनाओं ने अन्नमय कोष पर जो क्षणभंगुर छाप डाली होती है उसे (या वस्तुत: उन घटनाओं के प्रतिलेख को) मिटा देती है । यदि जागरण अधिक शांत (कम ऊबड-खाबड़) ढंग से हो या, यदि छाप बहुत प्रबल हो, तो कम-से-कम अंतिम स्वप्न की स्मृति रहती हे । इनमें से अंतिम अवस्था में (अर्थात् छाप के प्रबल

 

वही, पृ ३१  वही, पृ. ३२ वही, पृ. ३३

३८३ 


होने पर) मनुष्य स्वप्न को चिरकाल तक याद रख सकता है, किन्तु सामान्यतया उठने के बाद स्वप्न की समितियां मिट जाती हैं । जो लोग अपने स्वप्न याद करना चाहते हैं वे कभी-कभी (जागने के बाद) शांत लेटे रहने और स्मृति में पीछे जाकर स्वप्न का सन्धान करने का अभ्यास करते हैं और इस प्रकार वहां स्वप्नों को एक-एक करके फिर से पा लेते है । जब स्वणावस्था बहुत हल्की- फुलकी होती है तब मनुष्य अधिक स्वप्न याद कर सकता है, अपेक्षा इसके कि जब वह बोझिल होती है ।

 

१ - १- १९३७  

 

*

 

'' अब तुम्हारे पास ऐसी कोई चीज नहीं रही जिसे तुम अपनी कह सको; तुम प्रत्येक वस्तु को भगवान् से आती अनुभव करते हो और उसे तुम्हें वापिस उसके मूल स्रोत की भेंट कर देना होगा जब तुम यह अनुभव प्राप्त कर सकोगे तब तुम देखोगे कि छो- से छोटी वक्ष भी जिसपर तुम सामान्यतया स्तुत ध्यान नहीं देते या जिसकी बहुत परवाह नहीं करते तुच्छ एवं निरर्थक नहीं रह जाती; वह अर्थपूर्ण हो जाती है और परे के विशाल क्षितिज को खोल देती है '''

 

   क्या यह अवस्था '' अभीप्सा करो और खींचो  इस जितनी आरंभिक अवस्था है?

 

इतनी आरंभिक नहीं ।

 

१४ - १ - १९३७ 

 

*

 

'' परंतु यदि हम चाहते हे कि भगवान् यहां शासन करें तो हमारे पास जो कुछ है: हम जो कुछ हैं और जो कुछ यहां करते हैं वह सब हमें भगवान् को दे देना होगा! '' '

 

यदि कोई यह पूर्णतया कर ले तो क्या उसे और कुछ भी करना होता है?

 

वही, पृ. ४८  वही, पृ. ५१

३८४ 


नहीं | परंतु इसे पूर्णरूप से करना आसान नहीं ।

 

१४-१-१९३७

 

*

 

   कैसे हम यह पहचान सकते हैं कि कोई व्यक्ति वह सब भगवान को दे देता है जो उसके पास है और के वह है तथा जो वह करता है?

 

तुम नहीं पहचान सकते, जबतक तुममें  अन्तर्दृष्टि न हो ।

 

१४-१-१९३७

 

*

 

  '' क्योंकि संसार में ऐसी कोई वरतु नहीं जिसका अनंतिम सत्य और आश्रय भगवान् में न हो '' '

 

  इस बात को अनुभव के द्वारा पूर्ण रूप से जान लेना बहुत महान् उपलब्धि शायद अन्तिम उपलब्धि प्रापत कर लेना है? क्या मेरा कहना ठीक हो ?

 

हां

 

१९-१-१९३७

 

*

 

    '' स्पष्ट ही जो कुछ हुआ है बह होना ही था; वह हुआ ही न होता यदि वह अभिप्रेत न होता ''

    तो फिर मनुष्य के जीवन में पश्चात्ताप का क्या स्थान है? क्या साधक के जीवन में उसका कोई स्थान है?

 

पश्चात्ताप का स्थान भविष्य के लिये उसके प्रभाव में है-यदि वह प्रकृति को उस प्रकार की वस्तुस्थिति से पराङ्मुख होने के लिये प्रेरित करे जिसने घटना को उत्पन्न .किया था । परंतु साधक के लिये पश्चात्ताप नहीं, बल्कि क्रिया में

 

वही, पृ. ५५  वही, पृ. ५५

३८५ 


गलती को स्वीकार करना और उसके फिर से न होने की जरूरत महसूस करना आवश्यक है ।

 

१९ - १ - ११३७ 

 

*

 

''तुम कर्म की खुला से बंधे हो और वहां उस खुला में जो भी घटना घटती है वह कठोर नियम के अनुसार उसका परिणाम होती है जो पहले किया जा चुका है! ''

 

क्या '' पहले '' का अर्थ है सभी विगत जीवनों में: बिलकुल पहले जीवन से लेकर इस जीवन तक में?

 

 इसका अर्थ है वस्तुओं को समष्टि-रूप में ग्रहण करना । दार्शनिक अर्थ में, जो कुछ घटित होता है वह, काम करने के क्षण से पहले जो कुछ भी हो चुका है उस सबका परिणाम होता है । व्यावहारिक दृष्टि से, तत्तत् परिणामों के भूतकाल में तत्तत् (विशेष) पूर्वकारण होते हैं और यही उन परिणामों के निर्धारक कहे जाते हैं ।

 

(ये उद्धरण कहां से लिये गये हैं? किसी वाक्य के ठीक-ठीक आशय में कभी-कभी बहुत कुछ प्रकरण पर निर्भर करता है । ' )

 

११ - १ - ११३७ 

 

*

 

"बहुत- से लोग तुम्हें इस विषय में अहभुत कहानियों सुनायेंगे कि इस जगत् की रचना किस प्रकार हुई और भविष्य में इसका प्रवाह कैसे चलेगा तुम भूतकाल में कैसे और कहां जन्मे थे और आगे क्या बनोगे कैसे- कैसे जीवन तुम जी चुके हो और अभी कैसे- कैसे जीवन नीओगे! इस सबका आध्यात्मिक जीवन से कुछ भी संबंध नहीं ''

 

   ऐसे लोग जो कुछ कहते हैं वह सब क्या निरा पाखण्ड है? क्या 

 

वही पृ. ५८

 

श्रीअरविन्द की इस टिप्पणी से स्पष्ट ही है कि इस प्रश्नमाला के उत्तर के समय उन्हें पता नहीं था कि प्रश्नों में उद्धत वचन माताजी की पुस्तक (कॉन्वर्सेशन्स, मातृवाणी-वार्तालाप) से लिये गये हैं ।

 

वही, पृ. ७६

३८६


अधार्मिक प्रक्रिया  से मित्र  कोई और प्रक्रिया भी है जिसके दुरा मनुष्य  इन सब चीजों को जान सके?

 

प्रायः ही वह सब पाखण्ड होता है, किन्तु यदि वह ठीक हो भी तो भी उसमें आध्यात्मिक तत्व कुछ भी नहीं होता । अनेकों माध्यम, अतीन्द्रियदर्शी या विशिष्ट- योग्यता से संपन्न व्यक्ति तुम्हें ये चीजों बताया करते हैं । वह योग्यता भी उसी तरह आध्यात्मिकता से रहित है जिस प्रकार पुल बनाने या स्वादु खाद्य तैयार करने या गणित का प्रश्न हल करने की क्षमता । बौद्धिक क्षमताएं भी होती हैं और गुह्य क्षमताएं भी -बस इतना ही ।

 

२० - १ - १९३७

 

*

 

   ''बे (पैशाचिक सताएं) मानवी नहीं होती; उनका रूप या बाह्याकार ही मनुष्य- जैसा होता है उनका तरीका यह है कि पहले तो के किसी मनुष्य पर अपना प्रभाव जमाने का प्रयत्न करती हैं; फिर के धिसे-धीमे उसके वातावरण में धुस आती हैं और अत में के उसके वास्तविक मानव- आत्मा और व्यक्तित्व को सर्वथा बाहर निकाल कर उसे पूर्ण रूप से अधिकार में ले आ सकती हैं ''

 

   '' ने एक लड़की से विवाह किया है जिसके विषय में माताजी ने कहा है कि वह कुछ हद तक पिशाच- जैसी है तो क्या वह इन सब संकटों से घिरा है? उसे क्या सावधानियां बरतनी चाहियें? क्या मैं उसे चेता दु?

 

सर्वप्रथम यहां जो कुछ अभिप्रेत है वह यह नहीं कि पिशाच या प्राणिक सत्ता किसी एक मनुष्य के शरीर पर अधिकार जमाये होने पर भी फिर एक और मनुष्य को अपने अधिकार में करने का यत्न करती है । यह सब तो केवल इस बात का वर्णन है कि कैसे एक देहरीहत (पैशाचिक) प्राणिक मानव सत्ता शरीर में साधारण ढंग से जन्म लिये बिना उसे अपने कब्जे में कर लेती है- क्योंकि. ऐसी प्राणिक सत्ताएं की यही इच्छा होती है, मानव शरीर को अधिकृत करना पर जन्म के तरीके से नहीं । जब एक बार वे इस प्रकार मानवी आकार ग्रहण कर लेती हैं तो दूसरों के लिये वे संकट-रूप इसलिये होती हैं कि जो 

 

वही, ०. ७८ - ७१

३८७


लोग उनके संपर्क में होते हैं उनकी प्राणशक्ति को ही वे अपना आहार बनाती है-बस इतना ही ।

 

   दूसरे, इस उदाहरण में, माताजी ने केवल यही कहा है कि कुछ हदतक पिशाच-सी । उसका यह अर्थ नहीं कि वह इन सत्ताओं में से ही एक है, वरन् यह कि उसमें कुछ हदतक दूसरों की प्राण-शक्ति से अपना पोषण ग्रहण करने की आदत है । ' क्ष ' को कुछ कहने की कोई जरूरत नहीं । इस बात से उसे केवल क्षोभ ही होगा, सहायता तो जरा भी नहीं मिलेगी ।

 

२१-७-१९३७

 

*

 

   अपनी पुस्तक ("कॉन्वर्सेशन्स मातृवाणी वार्तालाप) में माताजी कहती हैं कि योग का पहला परिणाम होता है मानसिक नियंत्रण को हटा देना फलतः, जो विचार और कामनाएं इतने लंबे समय तक दबी पड़ी थीं के आश्चर्यजनक रूप से प्रबल हो उठती हैं और कठिनाइयां पैदा करती हैं '

 

पहले वे (कामनाएं एवं विचार ) इसलिये प्रबल नहीं थे कि उन्हें कुछ-कुछ तुष्ट किया जा रहा था या कम-से-कम प्राण सामान्यतया किसी-न-किसी ढंग से उनका उपभोग कर रहा था । जब उनका पूर्ववत् उपभोग नहीं किया जाता तो वे दुर्गम हो उठते हैं । परंतु वे कोई ऐसी नयी शक्तियां नहीं होते जो योग द्वारा उत्पन्न की गयी हों -वे सब समय ही वहां थे ।

 

मानसिक नियंत्रण के हटा देने का अभिप्राय यह है कि मन उन्हें केवल काबू में रखता था पर दूर नहीं कर सकता था । इसलिये योग में मानसिक संयम के स्थान पर चैत्य या आध्यात्मिक संयम प्रतिष्ठित करना होता है जो वह कार्य कर सकता है जिसे मन नहीं कर सकता, केवल इतनी बात है कि बहुतेरे साधक इस परिवर्तन को समय पर नहीं करते और केवल मानसिक संयम को हटा भर लेते हैं ।

 

१२ - ५ - १९३३

 

*

 

' वही, पृ. १७

३८८ 


अपनी पुस्तक में माताजी कहती हैं जो कोई हंसता कूदता या चिल्लाता है उसको ऐसा भान होता है कि कारण चाहे जो कुछ भी क्यों न हो पर उसकी वह उत्तेजना अत्यन्त असाधारण प्रकार की है और उसकी प्राण-प्रकृति इसमें बड़ा सुख मानती है। '' क्या उनके कहने का मतलब यह है कि आध्यात्मिक अनुभूति होने पर मनुष्य को अपनी उत्तेजना संयमित करके साधारण स्थिति में बने रहना चाहिये असाधारण स्थिति में नहीं?

 

माताजी का बिलकुल ही यह मतलब नहीं था कि मनुष्य को अपनी उत्तेजना को संयमित कर सामान्य स्थिति में बने रहना चाहिये -उनका मतलब था कि वह मनुष्य केवल उत्तेजित ही नहीं होता बल्कि अपनी उत्तेजना में सबसे भिन्न  ( असाधारण) होना चाहता है । स्वयं उत्तेजना भी बुरी है और असाधारण प्रतीत होने की इच्छा तो और भी बुरी है ।

 

७ - ६- १९३३

 

भगवान् को भोजन अर्पण करना

 

' मातृवाणी ' में आये हुए इस वाक्य से माताजी का क्या मतलब है :  '' जब तुम खाते हो तब तुम्हें यह अवश्य अनुभव करना चाहिये कि स्वयं भगवान् ही तुम्हारे द्वारा का रहे हैं? '' '

 

इसका अर्थ है भोजन अहंकार या कामना को नहीं बल्कि भगवान् को अर्पण करना जो सभी क्रियाओं के पीछे विद्यमान हैं ।

 

११ - १ - ११३५ 

 

*

 

( '' कॉन्वर्सेशन्स ' मातृवाणी-वार्तालाप) में माताजी विचारों की शक्ति की चर्चा करती हैं और उदाहरण देती हैं कि यदि  ''तुम्हारी यह तीव्र इच्छा है कि अमुक मनुष्य तुम्हारे पास आये और इच्छा के इस प्राणमय आवेग के साथ- साथ यदि तुम्हारी बनायी मानसिक रचना के सन एक बलवती कल्पना भी जुड़ी हुई हो... और यदि तुम्हारी 

 

वही, पृ. २८  वही, पृ. ४८

३८९


विचाररूपी रचना में पर्याप्त इच्छाशक्ति हो यदि वह एक सुनिर्मित रचना हो तो वह अपना उद्देश्य सिद्ध कर ही लेगी /"

 

  मान लें कि प्रस्तुत उदाहरण में प्राण के अंदर कोई प्रबल कामना न हो पर मन में केवल विचार या धुंधली कल्पनाएं हों तो क्या के उस व्यक्ति के पास जाकर उसे आने को प्रेरित करेंगी?

 

वे ऐसा कर सकती हैं; विशेषकर यदि वह व्यक्ति स्वयं भी आने को इच्छुक हो तो वे उसे निर्णायक धक्का दे सकती हैं । परंतु अधिकतर दृष्टांतों में विचार- शक्ति के पीछे कामना या संकल्प की आवश्यकता होगी ही ।

 

२ ६- ८ - ११३६

 

( '' कॉन्वर्सशन्स ' मातृवाणी- वार्तालाप) में माताजी कहती हैं कि विशद और अनुत्साह नाड़ी- कवच में छेद कर देते हैं और साथ ही उनके कारण विरोधी आक्रमणों का होना अधिक आसान ही जाता है । ' एक अर्थ में इसका मतलब हुआ कि एक सदाशय व्यक्ति को किसी के गलत विचारों आवेगों या चेष्टाओं को निरुत्साहित नहीं  करना चाहिये परंतु क्या यह साधारण जीवन तथा साधना के सद्धांतों के विपरीत नहीं होगा? ऐसे लोगों के साथ बरताव करते समय चुप रहना भी एक तरीका? है परंतु कभी- कभी वह भी उन्हें साफ- साफ निरुत्साहित करने की अपेक्षा अधिक चोट पहुंचाता है ।

 

    विषाद और अनुत्साह के जिन बुरे परिणामों की ओर माताजी ने इंगित किया है क्या वे साधारण जीवन में भी घटित होंगे?

 

नाना प्रकार के विषाद के परिणाम के विषय में साधक को दिये गये ज्ञान का उद्देश्य यह है कि वह इन चीजों से बचना सीखे । वह लोगों से यह आशा नहीं कर सकता कि वे उसकी विफलताओं या मूलों के विषय में केवल इस कारण चिकनी-चुपड़ी बातें करें या उसकी दुर्बलताओं को केवल इसलिये प्रश्रय दें कि उसने विषाद में ग्रस्त होने की तथा वैसी अवस्था में अपने नाड़ी-कवच को चोट पहूंचाने की आदत डाल रखी है । अपने को विषाद से मुक्त रखना उसका काम है न कि दूसरों का । उदाहरण के लिये, कुछ लोगों की आदत है कि यदि 

 

वही, पृ. १३ -९ ४ वही, पृ. १६२

३९०


माताजी उनकी इच्छाएं पूरी नहीं करतीं तो वे उदास हो जाते हैं-इससे यह अर्थ नहीं निकलता कि उन्हें खुश रखने के लिये माताजी को उनकी इच्छाएं पूरी करनी ही चाहियें-उन्हें मन की इस आदत से छुटकारा पाना सीखना होगा । अपने सभी कामों के लिये प्रोत्साहन या प्रशंसा पाने की लोगों की इच्छा के बारे में भी यही बात है। मनुष्य यह कर सकता है कि वह चुप रहेगा हस्तक्षेप न करे, किन्तु यदि इससे भी उनका चित्त खिन्न हो जाये तो यह उनका अपना दोष है, किसी और का नहीं ।

 

निः सन्देह, साधारण जीवन में भी यही बात है,-विषाद सदैव हानिकारक होता है । पर साधना में वह अधिक भयावह होता है क्योंकि वह लक्ष्य की ओर निर्विघ्न एवं हुत प्रगति में प्रबल बाधा बन जाता है ।

 

१८-७-११३६

 

*

 

(ओंत्रतिएं) में माताजी कहती है? अर्थात् जिन लोगों की इच्छा यहां से भाग जाने की है के भी जब उस पार क्षंचेगे तो यह अनुभव कर सकते हैं कि आखिर भाग आने का कोई विशेष फल नहीं हुआ ) इस वाक्य में क्या अभिप्राय है? क्या इसका यह मतलब है कि  ''जब के इस लोक में आते हैं'' या ''जब के उस 'नीरवता के लोक' में जाते हैं जिसका उन्होने साक्षात्कार किया था''?

 

नहीं' का अर्थ इतना ही है कि ''जब वे मर जाते हैं'' । माताजी का आशय यह था कि जब वे सचमुच में निर्वाण में पहुंचते हैं तो अनुभव करते हैं कि यह अन्तिम समाधान नहीं या परम प्रभु का वृहत्तम साक्षात्कार नहीं, और अंत में उन्हें उस वृहत्तम साक्षात्कार तक पहुंचने के लिये वापिस आना और जगत्कार्य में अपना हिस्सा बंटाना होगा ।

 

२-५-११३५

 

*

 

माताजी की का फ्रेंच अनुवाद ।

 

मातृवाणी-वार्तालाप, पू.५१

३९१


('' आँत्रीतऐं ' : ''वार्तालाप ') में माताजी ने कहा है :  ''वास्तव में मृत्यु भूतल पर जीवनमात्र के साथ जुडी हुई है '' ' ' 'वास्तव में '' और '' जुडी हुई  ये शब्द हम पर यह छाप डालने की प्रढ़त्ति रखते हैं कि आखिर मृत्यु अटल है परंतु इससे पहले का वाक्य - '' यदि इस विश्वास को पहले सचेतन मन से... बाहर निकाला जा सके तो मृत्यु अटल नहीं रहेगी'' ' - अर्थ की सन्दिग्धता को ले आता है क्योंकि यह मृत्यु को उतना अटल रूप नहीं देता; यह एक शर्त- एक '' यदि  को जोड़ देता है जिससे मृत्यु को टाला जा सकता हे परंतु ' 'वास्तव में  इन पदोवाले वाक्य में अर्थ की जो सुनिश्चितता आती है वह मनुष्य की भौतिक अमरत्व की आशा को अपेक्षाकृत हलका कर देती है और फिर दूसरे वाक्य की '' यदि '' वाली शर्त इतनी विकट है कि उसे पूरा ही नहीं किया जा सकता!

 

मुझे तो इसमें कोई संदिग्धार्थता नही दिखाई देती । '' वास्तव में '' और '' जुडी हुई ''-ये शब्द अपरिहार्यता का कोई भाव नहीं सूचित करते । '' वास्तव में '' का अर्थ इतना ही है कि एक तथ्य के रूप में, वस्तुत:, आज जैसी वस्तुस्थिति है उसमें (भूतल पर ) समस्त जीवन के साथ मृत्यु उसके अंत के रूप में जुड़ी हुई है; किंतु यह इस विचार को तनिक भी द्योतित नहीं करता कि इससे उलटी बात कभी नहीं हो सकती या यह समस्त जीवन का अपरिवर्तनीय नियम है । कुछ कारणों से जिनका प्रतिपादन यहां किया गया है-कुछ एक मानसिक एवं भौतिक अवस्थाओं के कारण -वर्तमान में यह एक तथ्य है, यदि ये परिवर्तित हो जायें तो फिर मृत्यु अटल नहीं रहेगी । स्पष्ट ही, यह परिवर्तन केवल तभी आ सकता हे ''यदि '' कुछ शर्ते पूरी की जायें -क्रमविकास के द्वारा साधित समस्त प्रगति एवं परिवर्तन एक '' यदि '' या शत पर निर्भर करता है जो पूरी हो जाती है । यदि पकता मन को वाणी और तर्कबुद्धि का विकास करने के लिये प्रको न मिला होता तो मनोमय मनुष्य कभी अस्तित्व में न आता, - परंतु वह '' यदि '' -एक बड़ी भारी और विकट शत पूरी हो ही गयी । और आगे की प्रगति के लिये शर्त बांधनेवाली ''यदियो '' की भी यही बात है ।

 

३१ - ७ - ११३६

 

वही, पु. ६९  २वही, पु.६९

 

३९२